January 29, 2011

ईश्वर का रहस्य

जिस प्रकार मनुष्य युक्ति के द्वारा ,आग,दूध ,पृथ्वी से अन्न, जल और ब्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेता है,वैसे ही विवेकी पुरुष अपनी बुद्धि - ज्ञान द्वारा इश्वर क़ो प्राप्त कर लेते हैं/ इश्वर का स्वरुप ज्ञान रूप है/ उसमे माया द्वारा रचित विशेषताएं नही हैं/ और किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहां तक पहुंच नहीं है/इश्वर के स्वरुप के छोटे से भाग में पशुपक्छी और मनुश्यादी  की श्रृष्टि विद्यमान है/ मन क़ो पूर्णतया एकाग्र करके इश्वर और उसके आश्रय से रहने वाली माया क़ो समझा जा सकता है/ जैसे ब्रिक्छ की जड़ क़ो पानी से सीचना ,उसकी शाखाओं ,डालिओं, पत्तों, फलों ,फूलों क़ो भी सीचना है,वैसे ही  इश्वर क़ो समझना सम्पूर्ण प्राणियों सहित अपने आप क़ो भी समझना है/ इश्वर का रह्श्य तर्क वितर्क -कुतर्क से परे है ।

जनार्दन त्रिपाठी मो नं 9005030949

January 28, 2011

धार्मिक भटकाव

धार्मिक भटकाव;-वैष्णो  देवी के पास रहने वाले विन्द्ध्याच्ल ,विन्द्ध्याचल के पास के लोग वैष्णोदेवी /और  प्रयाग के लोग मथुरातथा ,मथुरा के लोग प्रयाग/जा रहे हैं/जिससे प्रतीत होता है की लोग भटक रहे हैं/ जो इश्वर राम कृष्ण, ईसू,इस्लाम, वाहेगुरु, इत्यादि के समय और उसके पहले थे वे ही इश्वर आज भी हैं/ मरना एवं पैदा होना जीव से सम्बंधित है, इश्वर से सम्बंधित नहीं/

January 26, 2011

परलोक

परलोक विज्ञानं सत्य है,तथा इसे प्रमाण देकर साबित करना कठिन है/मृत्यु से पूर्व जीव क़ो कष्ट होता है,किन्तु प्राण निकलते वक्त वह मूर्छित हो जाता है/और मूर्छा की अवस्था में ही प्राण निकलता है/शरीर से प्राण वायु निकल जाती है,और वहीं बैठे लोग नहीं देख पाते क्योंकि वायु क़ो जीव ने कभी नहीं देखा/ किसी भी मनुष्य का जीवन एक ही आत्मा से संचालित नहीं होता/ आत्माएं भिन्न भिन्न होती हैं -महात्मा, पुण्यात्मा ,देवात्मा ,पापात्मा ,दुष्टात्मा इत्यादि/सम्मोहित आत्मा एवं वायु के सहयोग से, मनुष्य जन्म लेने हेतु जीव, पुरुष के द्वारा, स्त्री के उदर में प्रवेश करता है/वहां एक रात्रि में कलल,५ रात्रि में बुदबुद ,१० दिन में बेर के समान,३० दिन में सिर निकल आते हैं, २ माह में अंगो का विकास, ३ माह में  नख ,रोम,चर्म,अस्थि ,स्त्री पुरुष चिन्ह, चार माह में मांस आदि,५ वे माह में भूख प्यास लगती है , ६ ठवे माह में झिल्ली में लिपटकर दाहिनी तरफ घुमने लगता है/ ७ वे माह में ज्ञान शक्ति का विकास होने के कारण जीव इश्वर से कहता है कि यद्द्यपि मैबड़े कष्ट में हूँ संसार मय कूप में जाने कि मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है,क्योंकि उसमे जाने वाले जीव क़ो माया घेर लेती है परिणामतः पुनः संसार चक्र में पड़ना पड़ता है/ इसके बाद प्रसव  काल की वायु बाहर आने के लिए धकेलती है/ बालक ब्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर आता है/  पूर्व स्मृति नष्ट हो जाती है , कोरे कागज के रूप में शिशु का मष्तिष्क बाह्य दुनियां के दांव -पेच में उलझता हुआ बल्यावाश्था,युवावश्था ,एवं बुजुर्गावाश्था,को प्राप्त होते हुए या बिच में ही मृत्यु को प्राप्त होता है /   

January 25, 2011

भोग एवं कामनाएं

सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे,और मरने के बाद अप्रकट हो जायेंगे/जीव बलवान काल की प्रेर्ड़ा से भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भ्रमण करता है ,किन्तु काल के प्रबल पराक्रम क़ो नहीं जनता/ प्राणी सुख की अभिलाषा से जिस जिस बस्तु क़ो बड़े कष्ट से प्राप्त करता है ,उस उस क़ो काल विनष्ट कर देता है,जिस के लिए जीव क़ो बड़ा शोक होता है/मन्दमति मनुष्य अपने नाशवान शरीर तथा उसके सम्बन्धिओन के धन आदि क़ो मोह बस नित्य मान लेता है/ तथा उसी में आनंद मानने लगता है/  यह संसार असार है ,यह अत्यंत दुःख रूप एवं मोह में डालने वाला है/ सुख न तो किसी जीव क़ो है और न ही उस जीव के चक्रवर्ती राजा क़ो/ पृथ्वी पर जो जीव अपने आप में ही रमण करने वाला,और अपने आप में ही तृप्त एवं संतुष्ट है वही सुखी है/इस संसार में २ ही प्रकार के लोग सुखी होंगे,१.अत्यंत मूढ़ २.बुद्धि से इश्वर क़ो प्राप्त कर चुके लोग/ बीच के संसयापन्न  लोगों क़ो दुःख ही दुःख होगा/ सांसारिक भोगों का अंत नही है,अनंत ब्रह्माण्ड में अनंत तरह के भोग हैं/ऐसे कामनाएं भी अनंत हैं,यदि मनुष्य समस्त दिशाओं क़ो जीत ले,और भोग ले, तब भी उसके लोभ का अंत नहीं होगा/जिन्होंने अपना मन और प्राण इश्वर में समर्पित कर रखा है,उनकी कामनाएं उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होती/

January 24, 2011

ईश्वर

जिस प्रकार डूबते हुवे क़ो पानी से बाहर आने की ब्याकुलता होती है,ठीक उसी प्रकार की ब्याकुलता इश्वर क़ो जानने की होने पर इश्वर क़ो जाना जा सकता है/आराधना एवं उपासना मन की भावनाएं हैं,और मन की भावनाओं क़ो न रोका जा सकता है और न ही मन की भावनाओं द्वारा ईश्वर क़ो समझा जा सकता है।संसार के समस्त दुखों का जड़ बंधन है। जिस ब्यक्ति क़ो ईश्वर और मोक्ष की इच्छा है ,उसे भोगी प्राणियों का साथ छोड़ देना चाहिए,एक क्षण भीअपनी इंद्रियों को बहिर्मुख न होने देना चाहिए,अकेला ही रहकर चित्त को सर्वशक्तिमान ईश्वर में लगाना चाहिए, यदि संग करने की आवश्यकता ही पड़े तो निष्ठावान महात्माओं का ही संग करना चाहिए।  घर गृहस्ती एक ऐसी वस्तु है की जो उसके दांव पेच और प्रवंध आदि में एक बार भीतर तक प्रवेश कर जाता है वह अपने स्वरूप क़ो नही समझ सकता स्वजन सम्बन्धियों का एक स्थान पर इकट्ठा होना वैसा ही है जैसे प्याऊ पर पथिकों का/यह सब माया का खेल है और स्वप्न सरीखा है /सब भाग रहे हैं /क्यों?कहाँ और किसलिए? यह आजतक किसी ने नहीं समझा/इश्वर के स्वरूप के रह्श्य  क़ो वही जान सकता है जो निरंतर निष्कपट भाव से उसका चिन्तन करेगा / कर्म करना मनुष्य का प्रकृति जन्य गुड है/ मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों क़ो इश्वर क़ो अर्पित कर गुड-दोष दृष्टि से रहित होकर कर्म करे तो वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है/प्रकृति के तीन गुडों सत्व रज और तम क़ो स्वीकार कर इस संसार की स्थिती ,उत्पत्ति, और प्रलय के लिए एक ही इश्वर विभिन्न नाम धारण किये हुए हैं/ कर्म करते समय भले एवं बुरे का ज्ञान कराने वाली शक्ति इश्वर का अत्यंत सुक्छ्म रूप है/ यह अब्यक्त  ,आदि अंत,और मध्य से रहित एवं नित्य है/ तथा अत्यंत गोपनीय है/ 

January 23, 2011

मन

मन की निर्बलता धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा; / धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता ,उद्देश्य की अस्थिरता   और  मन की निर्बलता  से  पड़ती  है/मनुष्य के कर्तब्य मार्ग में एक ओर आत्मा के भले बुरे कर्मों का ज्ञान और दूसरी ओर आलश्य  एवं  स्वार्थ्प्रता रहती है/बस मनुष्यइन्ही  दोनों के बीच पड़ा रहता है /औरअंत में यदि उसका मन पक्का हुआ तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है/ यदि उसका मन कुछ कल तक दुबिधा में रहा तो स्वार्थ्प्रता निश्चय ही   उसे  घेरेगी और उसका चरित्र घ्रिडा के योग्य हो जायेगा/                                              मन;मन का सासन हमारे शरीर  पर   ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्छेत्र  पर है/ मनोबल सफलता एवं प्रसन्नता का उद्दगम है/मन क़ो सशक्त बनाकर हम प्रतिकूलताओं में  भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं/ मनुष्य में सम्बन्ध ,रिश्ते, सामाजिक संरचना, सामूहिक जिम्मेदारी ,दया, क्छ्मा, परोपकार,इत्यादि मन से संचालित होने वाली संज्ञा  हैं   मनुष्य के आतंरिक प्रकृति  का विकास  मन करता है/मन की कम सक्रियता मानवीय भावो क़ो कम कर देती हैं/परिणाम स्वरूप मनुष्य तर्कशील तो बनता है,परन्तु भाव शुन्य भी/ मनुष्य के मन में बहुत से भले बुरे विचार निरंतर आते जाते रहते हैं, लेकिन मानव अपने विचारों के प्रवाह में निरंतर गोता लगाता रहता है/और अपने  किसी भी  विचार क़ो कार्य रूप  नहीं दे  पाता  /और jo कार्य रूप deta  है vah  nishchit ही उसमें safal hota है/ मन स्वभावत चंचल है/किन्तु मन की एकाग्रता  जीवन  क़ो  सफलता  की ओउर ले जाता है/                       

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ईश्वर की खोज

१-पृथ्वी के सभी पदार्थों में वायु रमण करता है ,असुद्ध और दुर्गन्ध आदि दोषों से भरा वायु सुखों का नाश करता है /वायु प्राण तत्त्व है/और यह प्...

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