शनिवार, नवंबर 19, 2011

ALL ARE FRIENDS

in prosperity all are friends, no anyone is friend in bad times. life is like a shadow which repeats itself,all is false-this brittle life,these web-like relations,why we then ? keep carrying this load of sin.nothing is mine or your in this world, have throughts like a holy saint.be it a king or begger, all have to die the same way .we visit holy places but do not try to peep inside our soul . we feel proud about our look and outfit but do not keep our thoughts pure.        janardan tripathi india                  mo. no.9005030949. 

सोमवार, सितंबर 12, 2011

समय / काल

हम जन्म से पहले अप्रकट थे ,और मरने के बाद भी अप्रकट हो जायेगे ,  बलवान काल /समय की प्रेरणा से हम भिन्न -भिन्न अवस्थाओं में भ्रमण करते हैं किन्तु समय /काल के प्रबल पराक्रम को नहीं जानते तथा सुख की अ भिलासा से जिन -जिन वस्तुओं को बड़े कष्ट से प्राप्त करते हैं,काल उन्हें विनस्ट कर देता  है , यह देख हमे बड़ा शोक होता है क्योकि हम अपने नाशवान शरीर तथा उसके सम्बंधियो के धन और घर आदि को मोह बस नित्य / सत्य मान लेते हैं /

जनार्दन त्रिपाठी मो नं 9005030949.

रविवार, अगस्त 28, 2011

वेद ( श्रुति )WED {SHRUTI}

वेद;-प्रारम्भ में वेदों का ज्ञान गुरु -शिष्य परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा ,बाद  में महर्षि पराशर  के तेजशवी पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास ने वेदों के इस विशाल ज्ञान को लिपिबद्ध किया /यह समस्त ज्ञान चार वेदों में संकलित है /       १;-रिगुवेद - इसमें सर्वाधिक प्राचीन ज्ञान संगृहीत है ,तथा  पदार्थों के गुण  एवं उन  गुणों के नियंता  का वर्णन है/ इसमें १० मंडल हैं और दसों मंडल में १०५२१ मंत्र हैं/ ये सारे मंत्र १०२८ सूत्रों में विभाजित हैं /       २;-यजुर्वेद -इसमें यज्ञ कर्म के मंत्रो का संग्रह है, एवं इसमें४० अद्ध्यायो में कुल १९७५ मंत्र  हैं/                              ३;-सामवेद -इसमें ६ अद्ध्यायों में १८७३ मंत्र हैं तथा इसमें ऐसी मान्यता है कि गाकर मंत्र बोलने से जीव का परमात्मा से समन्वय होता है/         ४;-अथर्ववेद -अथर्ववेद को पवित्र वेद का स्थान नहीं प्राप्त है;इसमें मारण,मोहन ,उच्चाटन ,तथा जादू ,टोने आदि के मंत्र मिलते हैं/प्रारंभ में पवित्र ब्राह्मन -पुरोहितों का वर्ग इसे वेदों की श्रेणी में लेने को तैयार नहीं था /परन्तु आगे चलकर तीनो वेदों के साथ रखा जाने लगा / इसमें २० कांड हैं ,जिन्हें ७3१ सूक्तों में बाटा गया है ,तथा इसमें कुल ५९७७ मंत्रो का  उल्लेख है/                                                                 जनार्दन त्रिपाठी  मो,न, 09005030949
                                                                              
अथर्ववेद में चिकित्सा पद्धतियो ,पति-पत्नी के कर्तव्यों, विवाह के नियमों, मानमर्यादाओ का भी उत्तम विवेचन है । इसमें ब्रह्म की उपासना सम्बन्धी बहुत से मंत्र भी हैं ।
वेदांग-समय बीतने के साथ वैदिक साहित्य जटिल एवं कठिन प्रतीत होने लगा उस समय वेदों के अर्थ तथा विषयो के स्पष्टीकरण के लिए अनेक सूत्र ग्रंथ लिखे जाने लगे इन्हें वेेदांग  कहा गया ।
वेदांग 6हैं । शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, कल्प और ज्योतिष । पहले 4वेदांग  मंत्र के शुद्ध उच्चारण और  अर्थ समझने के लिए तथा अंतिम दो वेदांग  धार्मिक कर्मकांड और यज्ञों का समय जानने के लिए आवश्यक है ।

वैदिक काल, वैदिक साहित्य, वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति इत्यादि में समय-समय पर वेदों की समीक्षा की गई है ।    Janardan Tripathi. 

शनिवार, अगस्त 06, 2011

खुश रहने के सिद्धांत

खुश रहने के सिद्धांत ;-  जो अच्छा वार्तालाप करे उसी से बोलें  / ;---खुश रहें और खुश लोगों से सम्बन्ध   रखें  /  ;--- जिन कर्मो का जीवन में कोई उपयोग न हो उसे कभी न अपनाएं  /  ;---सफल लोगों से अपने आप को जोड़ें  / एवं उनके कार्यों में सहयोग करें  / ;---वर्तमान तन्त्र को तभी तक जीवित रखें जब तक लोगों का सहयोग प्राप्त है सहयोगियों क़ी संख्या कम होने पर तन्त्र को बंद कर दें  / ;---ध्यान रखें ;--जब सारे सात्विक लोग आलसी हो जाते हैं ,तो धन दौलत पर राक्छ्सी प्रवृति के लोगों का कब्जा हो जाता है /अतिथि सत्कार ;---आने पर स्वागत , -----एकांत में कुछ समय , -----और जाते वक्त कुछ कदम साथ चलें  / भुत एवं भविष्य का विचार करके जो भी कार्य  करेंगे ,आप सदैव उस कर्म से सुखी रहेंगे / ;----मक्खी -मच्छर आदि छुद्र जीवों को दूर करके भी आत्मिक -शांति प्राप्त करें / महगाई से बचाव का तरीका ;------सामान क़ी उपयोगिता  हो तो सामान खरीदें /                        बजट  के अनुसार प्लानिंग करें /                                सीजनल सब्जियां खरीदे ,पोषक भी होती हैं और सस्ती भी /             घर के नजदीक जाना हो तो पैदल  चलें /

शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

चैतन्य आत्मा

चैतन्य आत्मा ;-मानव शरीर माता  के गर्भ में स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं होता ,उसके विकास का कारणशरीर के भीतर रहने वाला जीव है / जीव केबिना प्राकृत शरीर न आकार ग्रहण कर सकता  है और न ही विकसित हो  सकता है /जब किसी प्राकृत पदार्थ  में विकास लक्छित होता है ,तब यह समझा जाना चाहिए की उसमे चैतन्य आत्मा विद्यमान है / विराटविश्व उसी तरह विकसित हुआ है जिस तरह एक शिशु का शरीर विकसित होता है /इसलिए "दिब्य तत्व तर्कसंगत है " किन्तु यह वाणी एवं मन की अवधारणा से परे है / काळ इश्वर की शक्ति है /जो सब प्रकार से भौतिक गति का नियंत्रण करती है / लोग त्रिलोक में समय -समय पर होने वाले प्रलयों एवं जन्म-मृत्यु को भूल जाते हैं ,यही  माया है /
जनार्दन त्रिपाठी मो नं 9005030949.

मंगलवार, मई 24, 2011

शक्ति/power.

शक्ति सार्वभौमिक एवं सर्व ब्याप्त है/सार्वभौमिक शक्ति वह छमता है-जिससे हम दुसरे के ब्यावहारों को नियंत्रित करते हैं/परिवार पर मुखिया ,बस में कंडक्टर इत्यादि अपने शक्ति का प्रयोग करते हैं/सैन्य एवं आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली राष्ट्र अन्य राष्ट्रों पर अपना प्रभाव रखते हैं/  हर समाज में कुछ इने-गिने लोगों के पास अपने समाज की शक्ति निहित होती है, धार्मिक नेता के पास भी अपने अनुयाइयों पर अपने प्रभाव की शक्ति होती है/ राज्यों की सेना धन द्वारा संचालित होती है/इस प्रकार यदि देखा जय तो -सैन्यशक्ति,आर्थिक-शक्ति,धार्मिक-शक्ति,मनोवैज्ञानिक-शक्ति,राजनितिक-शक्ति और मिडिया-शक्ति,वर्तमान समय की शक्ति है/

रविवार, जनवरी 30, 2011

सब में ईश्वर

जो ब्यक्ति सबमे इश्वर और इश्वर में सबको देखता है,उसके लिए इश्वर अदृश्य नहीं होते ,और न ही वह इश्वर के लिए अदृश्य होता है/  मनुष्य का मन उसका प्रभु की तरफ से ध्यान हटाता है/ मन जो भी खराब कार्य करता है,मनुष्य क़ो उश्का दंड भुगतना पड़ता है/ किसी क़ो नफरत की दृष्टि से देखने पर इश्वर शत्रु के रूप में, पुरुषार्थ करने पर पदार्थ के रूप में, चिन्तन करने पर ज्ञान के रूप में, एवं अलश्य करने पर रोग के रूप में इश्वर इसी संसार में प्राप्त होते हैं/ जिज्ञासु की जिज्ञासा होती है,की ब्रह्माण्ड की रचना करने वाले ने इसकी रचना क्यों की? जिस तरह गाना या गुनगुनाना एक स्वाभाविक क्रिया है वहां जरूरत शब्द की जरूरत नहीं,है उसी तरह दुनिया बनाने वाले क़ो भी/ मन में प्रश्न उठता है की जिस इश्वर ने इस प्रकार की रचना की उस  इश्वर क़ो किसने बनाया? उत्तर है की क्या इश्वर मरेगा ,यदि ओह मरता नहीं तो पैदा कैसे हो सकता / पैदा होना और मरना जीव से सम्बन्धित है,इश्वर से नहीं/
  जनार्दन त्रिपाठी

शनिवार, जनवरी 29, 2011

ईश्वर का रहस्य

जिस प्रकार मनुष्य युक्ति के द्वारा ,आग,दूध ,पृथ्वी से अन्न, जल और ब्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेता है,वैसे ही विवेकी पुरुष अपनी बुद्धि - ज्ञान द्वारा इश्वर क़ो प्राप्त कर लेते हैं/ इश्वर का स्वरुप ज्ञान रूप है/ उसमे माया द्वारा रचित विशेषताएं नही हैं/ और किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहां तक पहुंच नहीं है/इश्वर के स्वरुप के छोटे से भाग में पशुपक्छी और मनुश्यादी  की श्रृष्टि विद्यमान है/ मन क़ो पूर्णतया एकाग्र करके इश्वर और उसके आश्रय से रहने वाली माया क़ो समझा जा सकता है/ जैसे ब्रिक्छ की जड़ क़ो पानी से सीचना ,उसकी शाखाओं ,डालिओं, पत्तों, फलों ,फूलों क़ो भी सीचना है,वैसे ही  इश्वर क़ो समझना सम्पूर्ण प्राणियों सहित अपने आप क़ो भी समझना है/ इश्वर का रह्श्य तर्क वितर्क -कुतर्क से परे है ।

जनार्दन त्रिपाठी मो नं 9005030949

शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

धार्मिक भटकाव

धार्मिक भटकाव;-वैष्णो  देवी के पास रहने वाले विन्द्ध्याच्ल ,विन्द्ध्याचल के पास के लोग वैष्णोदेवी /और  प्रयाग के लोग मथुरातथा ,मथुरा के लोग प्रयाग/जा रहे हैं/जिससे प्रतीत होता है की लोग भटक रहे हैं/ जो इश्वर राम कृष्ण, ईसू,इस्लाम, वाहेगुरु, इत्यादि के समय और उसके पहले थे वे ही इश्वर आज भी हैं/ मरना एवं पैदा होना जीव से सम्बंधित है, इश्वर से सम्बंधित नहीं/

बुधवार, जनवरी 26, 2011

परलोक

परलोक विज्ञानं सत्य है,तथा इसे प्रमाण देकर साबित करना कठिन है/मृत्यु से पूर्व जीव क़ो कष्ट होता है,किन्तु प्राण निकलते वक्त वह मूर्छित हो जाता है/और मूर्छा की अवस्था में ही प्राण निकलता है/शरीर से प्राण वायु निकल जाती है,और वहीं बैठे लोग नहीं देख पाते क्योंकि वायु क़ो जीव ने कभी नहीं देखा/ किसी भी मनुष्य का जीवन एक ही आत्मा से संचालित नहीं होता/ आत्माएं भिन्न भिन्न होती हैं -महात्मा, पुण्यात्मा ,देवात्मा ,पापात्मा ,दुष्टात्मा इत्यादि/सम्मोहित आत्मा एवं वायु के सहयोग से, मनुष्य जन्म लेने हेतु जीव, पुरुष के द्वारा, स्त्री के उदर में प्रवेश करता है/वहां एक रात्रि में कलल,५ रात्रि में बुदबुद ,१० दिन में बेर के समान,३० दिन में सिर निकल आते हैं, २ माह में अंगो का विकास, ३ माह में  नख ,रोम,चर्म,अस्थि ,स्त्री पुरुष चिन्ह, चार माह में मांस आदि,५ वे माह में भूख प्यास लगती है , ६ ठवे माह में झिल्ली में लिपटकर दाहिनी तरफ घुमने लगता है/ ७ वे माह में ज्ञान शक्ति का विकास होने के कारण जीव इश्वर से कहता है कि यद्द्यपि मैबड़े कष्ट में हूँ संसार मय कूप में जाने कि मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है,क्योंकि उसमे जाने वाले जीव क़ो माया घेर लेती है परिणामतः पुनः संसार चक्र में पड़ना पड़ता है/ इसके बाद प्रसव  काल की वायु बाहर आने के लिए धकेलती है/ बालक ब्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर आता है/  पूर्व स्मृति नष्ट हो जाती है , कोरे कागज के रूप में शिशु का मष्तिष्क बाह्य दुनियां के दांव -पेच में उलझता हुआ बल्यावाश्था,युवावश्था ,एवं बुजुर्गावाश्था,को प्राप्त होते हुए या बिच में ही मृत्यु को प्राप्त होता है /   

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

भोग एवं कामनाएं

सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे,और मरने के बाद अप्रकट हो जायेंगे/जीव बलवान काल की प्रेर्ड़ा से भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भ्रमण करता है ,किन्तु काल के प्रबल पराक्रम क़ो नहीं जनता/ प्राणी सुख की अभिलाषा से जिस जिस बस्तु क़ो बड़े कष्ट से प्राप्त करता है ,उस उस क़ो काल विनष्ट कर देता है,जिस के लिए जीव क़ो बड़ा शोक होता है/मन्दमति मनुष्य अपने नाशवान शरीर तथा उसके सम्बन्धिओन के धन आदि क़ो मोह बस नित्य मान लेता है/ तथा उसी में आनंद मानने लगता है/  यह संसार असार है ,यह अत्यंत दुःख रूप एवं मोह में डालने वाला है/ सुख न तो किसी जीव क़ो है और न ही उस जीव के चक्रवर्ती राजा क़ो/ पृथ्वी पर जो जीव अपने आप में ही रमण करने वाला,और अपने आप में ही तृप्त एवं संतुष्ट है वही सुखी है/इस संसार में २ ही प्रकार के लोग सुखी होंगे,१.अत्यंत मूढ़ २.बुद्धि से इश्वर क़ो प्राप्त कर चुके लोग/ बीच के संसयापन्न  लोगों क़ो दुःख ही दुःख होगा/ सांसारिक भोगों का अंत नही है,अनंत ब्रह्माण्ड में अनंत तरह के भोग हैं/ऐसे कामनाएं भी अनंत हैं,यदि मनुष्य समस्त दिशाओं क़ो जीत ले,और भोग ले, तब भी उसके लोभ का अंत नहीं होगा/जिन्होंने अपना मन और प्राण इश्वर में समर्पित कर रखा है,उनकी कामनाएं उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होती/

सोमवार, जनवरी 24, 2011

ईश्वर

जिस प्रकार डूबते हुवे क़ो पानी से बाहर आने की ब्याकुलता होती है,ठीक उसी प्रकार की ब्याकुलता इश्वर क़ो जानने की होने पर इश्वर क़ो जाना जा सकता है/आराधना एवं उपासना मन की भावनाएं हैं,और मन की भावनाओं क़ो न रोका जा सकता है और न ही मन की भावनाओं द्वारा ईश्वर क़ो समझा जा सकता है।संसार के समस्त दुखों का जड़ बंधन है। जिस ब्यक्ति क़ो ईश्वर और मोक्ष की इच्छा है ,उसे भोगी प्राणियों का साथ छोड़ देना चाहिए,एक क्षण भीअपनी इंद्रियों को बहिर्मुख न होने देना चाहिए,अकेला ही रहकर चित्त को सर्वशक्तिमान ईश्वर में लगाना चाहिए, यदि संग करने की आवश्यकता ही पड़े तो निष्ठावान महात्माओं का ही संग करना चाहिए।  घर गृहस्ती एक ऐसी वस्तु है की जो उसके दांव पेच और प्रवंध आदि में एक बार भीतर तक प्रवेश कर जाता है वह अपने स्वरूप क़ो नही समझ सकता स्वजन सम्बन्धियों का एक स्थान पर इकट्ठा होना वैसा ही है जैसे प्याऊ पर पथिकों का/यह सब माया का खेल है और स्वप्न सरीखा है /सब भाग रहे हैं /क्यों?कहाँ और किसलिए? यह आजतक किसी ने नहीं समझा/इश्वर के स्वरूप के रह्श्य  क़ो वही जान सकता है जो निरंतर निष्कपट भाव से उसका चिन्तन करेगा / कर्म करना मनुष्य का प्रकृति जन्य गुड है/ मनुष्य सम्पूर्ण कर्मों क़ो इश्वर क़ो अर्पित कर गुड-दोष दृष्टि से रहित होकर कर्म करे तो वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है/प्रकृति के तीन गुडों सत्व रज और तम क़ो स्वीकार कर इस संसार की स्थिती ,उत्पत्ति, और प्रलय के लिए एक ही इश्वर विभिन्न नाम धारण किये हुए हैं/ कर्म करते समय भले एवं बुरे का ज्ञान कराने वाली शक्ति इश्वर का अत्यंत सुक्छ्म रूप है/ यह अब्यक्त  ,आदि अंत,और मध्य से रहित एवं नित्य है/ तथा अत्यंत गोपनीय है/ 

रविवार, जनवरी 23, 2011

मन

मन की निर्बलता धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा; / धर्म पालन करने के मार्ग में सबसे अधिक बाधा चित्त की चंचलता ,उद्देश्य की अस्थिरता   और  मन की निर्बलता  से  पड़ती  है/मनुष्य के कर्तब्य मार्ग में एक ओर आत्मा के भले बुरे कर्मों का ज्ञान और दूसरी ओर आलश्य  एवं  स्वार्थ्प्रता रहती है/बस मनुष्यइन्ही  दोनों के बीच पड़ा रहता है /औरअंत में यदि उसका मन पक्का हुआ तो वह आत्मा की आज्ञा मानकर अपना धर्म पालन करता है/ यदि उसका मन कुछ कल तक दुबिधा में रहा तो स्वार्थ्प्रता निश्चय ही   उसे  घेरेगी और उसका चरित्र घ्रिडा के योग्य हो जायेगा/                                              मन;मन का सासन हमारे शरीर  पर   ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्छेत्र  पर है/ मनोबल सफलता एवं प्रसन्नता का उद्दगम है/मन क़ो सशक्त बनाकर हम प्रतिकूलताओं में  भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं/ मनुष्य में सम्बन्ध ,रिश्ते, सामाजिक संरचना, सामूहिक जिम्मेदारी ,दया, क्छ्मा, परोपकार,इत्यादि मन से संचालित होने वाली संज्ञा  हैं   मनुष्य के आतंरिक प्रकृति  का विकास  मन करता है/मन की कम सक्रियता मानवीय भावो क़ो कम कर देती हैं/परिणाम स्वरूप मनुष्य तर्कशील तो बनता है,परन्तु भाव शुन्य भी/ मनुष्य के मन में बहुत से भले बुरे विचार निरंतर आते जाते रहते हैं, लेकिन मानव अपने विचारों के प्रवाह में निरंतर गोता लगाता रहता है/और अपने  किसी भी  विचार क़ो कार्य रूप  नहीं दे  पाता  /और jo कार्य रूप deta  है vah  nishchit ही उसमें safal hota है/ मन स्वभावत चंचल है/किन्तु मन की एकाग्रता  जीवन  क़ो  सफलता  की ओउर ले जाता है/                       

शनिवार, जनवरी 22, 2011

ब्रह्मसूत्र

ब्रह्मसूत्र ;हिन्दुओं के ६ दर्शनों में एक है/इसके रचयिता बादरायण हैं/ ब्रह्मसूत्र में चार अध्ह्याय  है /1.समन्वय  2.अविरोध ३ साधना एवं  ४ फल /इसके प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं/एवं कुल ५५५ सूत्र हैं/                                                       वेदांत के चार स्तंभों उपनिषद क़ो श्रुतिप्र्स्थान,भगवद्गीता कोस्म्रितिप्र्स्थान एवं ब्रह्मसूत्रों क़ो न्याय्प्रस्थान कहते हैं/
      जनार्दन त्रिपाठी

ईसा

इसा ;बारह वर्ष की उम्र होने के बाद इसा की अध्यात्मिक बृत्ति एवं छमता जब लोगों में उजागर हुई तो प्रशंसकों  से ज्यादा बिरोधियों की संख्या होने लगी/बिरोधिओं की संख्या इतनी बढ़ी की रोमन का गवर्नर पिलातुस इसा के बिरोधिओं क़ो प्रसन्न रखने हेतु इसा क़ो क्रूस पर मृत्युदंड की न्रिसन्स सजा सुनाया/                                                   सूली पर चडाने वाले क़ो अज्ञानी करार देकर इसा ने प्रभु से उसे छमा कर देने की विनती की/इसा की अनुभूति में मनुष्य इतना पीड़ित है की उसे पल प्रतिपल सहानुभूति एवं सेवा की जरूरत है/ इसा मनुष्य के दुःख से इतने उदास थे की उनका कोई ऐअसा चित्र नहीं बनाया जा सका जिसमे वे हस रहे हों/  
                                  जनार्दन त्रिपाठी

मानव धर्म

मानवधर्म ;  मानव समाज से धर्म क़ो निकाल दिया जाय तो पशुओं के दल के अतिरिक्त क्या बचेगा?आज विश्व में प्रचलित धर्मो हिन्दू,मुस्लिम सिक्ख ,ईसाई आदि ने इश्वर क़ो बाँट दिया है/समाज क़ो उपर उठाने के लिए धर्मो केविनाश की आवश्यकता नही है ,और समाज की जो दसा है ,उसके लिए धर्म जिम्मेदार नहीं हैं/बल्कि ऐअसा इसलिए हुआ है,की धर्म का जेसा ब्यवहार होना चाहिए था वैसा नही हुआ/जब तक लाखों लोग भूख और अज्ञान में डूबे रहकर मर रहे हैं,मैं ऐसे  प्रत्येक ब्यक्ति क़ो समाज  द्रोही मानता हूँ,जो शिक्छित तो हुआ पर उनकी ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया/जब तक एक भी ब्यक्ति भूखाऔर गरीब  हो हमारा सारा धर्म उसके लिए भोजन जुटाना और गरीबी मिटाना  होना चाहिए/पुरे विश्व की स्कूली शिक्छा एक भाषा में होनी चाहिए/विश्व के विभिन्न देशों के सम्विधानो के समानांतर एक मानवीय सम्विधान की रचना होनी चाहिए/यह समय की पुकार है/  
     जनार्दन त्रिपाठी

गुरुवार, जनवरी 20, 2011

ishwar ki khoj :/discovery of god

हम वाणी से बोलते हैं,कानों से सुनते हैं,और आँखों से देखते हैं /परन्तु वाणी में बोलनें की शक्ति नहीं है,कानो में सुनने की शक्ति नही  हैऔर आँखों में देखने की शक्ति नही है /कौन बोलता है?कौन सुनता है?और कौन देखता है?इस प्रश्न के उत्तर में हमारे मन ने  इश्वर के अस्तित्व क़ो स्वीकार किया है /                                                                                                                                    

बुधवार, जनवरी 05, 2011

ishwar ki khoj/discovery of god: ishwar ki khoj :/discovery of god

ishwar ki khoj/discovery of god: ishwar ki khoj :/discovery of god: "१. प्रकृति के विराट vaअद्भुत स्वरुप में जहाँ एक ओर जीवनोपयोगी तथा कल्याणकारी पदार्थ हैं ,वहीँ दूसरी ओर इसके भयावह स्वरूप भी दिखाई पड़त..."

लालच

मानसिक अदुर्दर्शिता की तृष्णा में मुग्ध होकर हम लोभ क़ो लक्छ्य मन लिए हँ,और निरंतर उसी की प्राप्ति के कठिन प्रयत्नो में उलझे है/ पशुपक्छी शारीरिक आवश्यकता पूर्ण हो जाने पर दौर धुप बंद कर देते हैं,परन्तु हम शारीर की आवश्यकता पूर्ण होने पर भी संग्रह के लोभ,प्रदर्शन के अहंकार,और सम्बन्धियों के मोह में फंसकर आवश्यक अनावश्यक ,उचित अनुचित का विचार किये बिना निरंतर लालच में फसें हैं/जब सारे सात्विक लोग आलसी एवं प्रमादी हो जाते हैं तो धन-दौलत पर राक्छ्सी प्रवृति के लोगों का कब्ज़ा हो जाता है/

रविवार, जनवरी 02, 2011

ईश्वर की खोज

१-पृथ्वी के सभी पदार्थों में वायु रमण करता है ,असुद्ध और दुर्गन्ध आदि दोषों से भरा वायु सुखों का नाश करता है /वायु प्राण तत्त्व है/और यह प्राणतत्व ही इश्वर है/वायु के बिना पृथ्वी पर कुछ भी संभव नहीं है/                                                              २.पृथ्वी, जल  ,वायु,अग्नि और आकाश इन पञ्च तत्वों के संयोग से जीव का शारीर बनता है/इन पञ्च तत्वों को एक सूत्र में बांधने का कार्य कौन करता है?                                                                                                                                  ३.जीव का शरीर हार्डवेयर है और यह दृश्य है/और शरीर में रमण करने वाली जीवनीशक्ति शाफ्त्वेयर है और यह अदृश्य है /       ४हम आकार देखने के आदीहो चुके हैं इसलिए .जब हम इश्वर या जीवनीशक्ति को खोज रहे होते हैं तो उसे भी आकार के रूप में देखना चाहते हैं /                                                                                                                                                   ५.प्रकृति के विराट और अद्भुत स्वरूप में जहाँ एक ओर जीवनोपयोगी एवं कल्याणकारी पदार्थ हैं,वहीं दूसरी ओर इसके भयावह स्वरूप भी दिखाई देते हैं,मनमे प्रश्न उठता हैकि-यह अद्भुत प्रकृति यह विराट संचेतना कहाँ से आयी?इसका नियंता कौन है? इसी प्रश्न के उत्तर में हमारे मन नें एक सर्वशक्तिमान इश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है/                                                                                 ६. हमनें उस इश्वर को खोज्खोज्कर और निरंतर कठोर साधना से उसका परिचय पाने का प्रयत्न किया तब उस इश्वर के अनेकानेक रूप उभरकर सामने आये/                                                                                                                                                ७. जिस प्रकार इस भौतिक जगत क़ो देखनें के लिए नेत्रों की आवश्यकता होती है,उसी प्रकार दिब्य तत्वों क़ो जाननें एवं समझनें के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है/                                                                                            ८. जन्म के समय जीव की अपनी कोई भाषा नही होती,और न ही कोई अपना ज्ञान/ जो कुछ भी ज्ञान उसके पास होता है वह दूसरों से सीखाहुआ /                                                                                                                                ९. सृष्टि के आरंभ में जीव क़ो शिक्छा देने वाला जब कोई नहीं था तब उसने प्रकृति के मद्ध्य ज्ञानार्जन किया/पशु पक्छियों में स्वाभाविक प्राकृतिक ज्ञान होता है, पक्छी अपना घोसला एवं मकरी अपना जाल स्वाभाविक प्राकृतिक ज्ञान से ही बना लेती है/                                                                                                                                                  १०. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक ही धुरी पर घूम रहा है,यह जर-चेतन संसार एक दुसरे के सहयोग से ही परिचालित है यदि किसी श्रृंखला की एक कड़ी भी टूट जाये तो सब कुछ बिखर जायेगा/                                                                                                                                                                                                                                                                                               मनुष्य इतना पीड़ित है की उसे प्रतिपल सहानुभूति एवं सेवा की जरुरत है/                                                          

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