August 23, 2024

लौकिक जीवन

लोकोत्तर विषयों की चिन्ता के लिए मनुष्य के पास न समय है न शक्ति। हम जिस जीवन को जी रहे हैं उसे नही समझ पाते तो मृत्यु को क्या समझेंगे? समाज की ईकाई परिवार है और परिवार की ईकाई मनुष्य। अधिकांश सामाजिक दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता है। अपनी उन्नति के साथ समाज की उन्नति की आकांक्षा करनी चाहिए। साहस और परोपकार की भावना - दया, करूणा, सच्चाई विवेकशीलता,नम्रता और आत्मसम्मान को कभी नही छोड़ना चाहिए। जब किसी परिवार का स्वामी दुराचारी होता है तो वह सासन करने की दैवी अनुमति खो देता है। जिससे बड़ी तीव्रता से उसका ह्रास होता है।अगर सदाचारी है तो उन्नति करता है। दुनिया में क्षमा, प्रेम,धैर्य और शान्ति से बड़ा कोई शस्त्र नही है। हम अगर बुद्धि के जाल को काट दें और सरल प्राकृतिक जीवन अपना लें तो फिर सुखी हो जायेगे।हम इतिहास के जिन महापुरुषों को आदर्श मानते हैं उन्होंने कभी आक्रमणात्मक युद्ध नही किया - रक्षात्मक युद्ध किया।

August 22, 2024

इच्छाओं में छिपा है दुःखों का कारण

हर समय एक इच्छा से दूसरी इच्छा की ओर भागने की बजाय,इच्छाओं के आंतरिक कारण जानने का प्रयास करना चाहिए। इच्छा, आसक्ति और आसक्ति दुख का कारण है। इच्छा की सम्मोहन शक्ति से मुक्त होकर दुखो से मुक्त हुआ जा सकता है।

November 01, 2022

संसार

यह संसार एक मृत्युमय पथ है।हमलोग मन, शरीर,और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। हम जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थोऔर विषयोंको एवं सुषुप्त अवस्था में केवल अज्ञान ही अज्ञान देखते हैं। हम वहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तु तो देखते हैं, पर अन्दर अपने-आपको नहीं देख पाते।

October 29, 2022

सम्पत्ति

सम्पत्ति और ऐश्वर्य स्वप्न तुल्य हैं। सबसे प्रेमभाव वाली सम्पत्ति के प्राप्त हो जाने पर यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियां मिट्टी के ढेर समान जान पड़ती है। मन को प्रेम भाव में, हाथ-पैर को अच्छा करने में, कानों को अच्छा सुनने मे,नेत्रों को अच्छा देखने में,मुख को अच्छा बोलने और नासिका को अच्छा गन्ध ग्रहण करने में लगाना चाहिए।इस प्रकार आत्मानंद मे रहने वाले के सामने सब तुच्छ है। घर, स्त्री, भाई-वन्धु, पुत्र,रत्न,आयुध इत्यादि वस्तु सब के सब असत्य हैं।  ऐसे पुरुष की रक्षा लिए परमात्मा का  सुदर्शन चक्र तैयार रहता है।जनार्दन त्रिपाठी मो•नं• 9005030949।

July 30, 2021

सभ्यता

पहले वह व्यक्ति सभ्य कहा जाता था, जिसका व्यवहार पवित्र, और जो धैर्यवान , गंभीर, हसमुख और विनयशील होता था। गरीबी और अमीरी के बीच उस समय कोई दीवार नहीं थी। ज्ञान का सम्मान उस समय राजा भी करता था और किसान भी करता था। दार्शनिक विचार अलग अलग होते हुए भी सभ्यता की कसौटी एक थी ।
इस समय, आधुनिक सभ्यता ने धनवान एवं निर्धन की दीवार खड़ी की है, भौतिकता एवं स्वार्थपरता उसकी आत्मा है।आधुनिकता से वंचित भाई जब आपको ठाट से देखता है, तो यह समझता है कि यह हमारा नहीं है। फिर आप कितनी ही बुलंद आवाज में परिवारवाद की हांक लगाएं वह आपकी ओर ध्यान नहीं देता। वह आपको पराया समझ लेता है। 
                     जनार्दन त्रिपाठी देवरिया उत्तर प्रदेश। 

April 02, 2021

भगवत कृपा

व्यक्ति का प्रभाव, पर्वत, वृक्ष इत्यादि जो भी स्थिर है, इन सब का वजूद तभी तक है, जब तक इन पर भगवत कृपा है। भगवान की शक्ति जाते ही सब गिर जाते हैं। 
                                           जनार्दन त्रिपाठी देवरिया। 

March 25, 2021

यथामाम् प्रपद्यन्ते

 ये यथामाम् प्रपद्यन्ते, तेस्तथैव भजाम्यहम् ।

मैं आलसी को रोग, चिन्तन करने वाले को ज्ञान, ईर्ष्या की दृष्टि से देखने वाले को शत्रु और पुरुषार्थी को पदार्थ के रूप में प्राप्त होता हूँ। 

January 10, 2021

कुचक्र में मानव

आध्यात्मिक क्रियाकलापों द्वारा जीव, जीवात्मा  के साथ रह सकता है। लेकिन वह ऐसे भ्रम जाल फंसा रहता है जहां से निकलने की कोई गुंजाइश नहीं होती। वह प्रतिपल तन के सुख में डूबा रहना चाहता है। जीवात्मा के साथ रहने मे उसे तनिक भी अच्छा नहीं लगता। वह वैभव के ही उपायों में डूबता उतराता रहता है। 
                                  Janardan Tripathi 
                                      9005030949 

January 08, 2021

जीवन सूत्र

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन काल में सुख, समृद्धि, शान्ति और सदाचार प्राप्त कर जीवन की समाप्ति पर मोक्ष प्राप्त  करना चाहता है। लेकिन इच्छा, स्वार्थ और मतिभ्रम की स्थिति में वह इन ध्येयों से दूर हो जाता है। धर्म संकट की स्थिति में-addhyatmajnardantripathi.blogspot.com 
को पढना चाहिए। 

September 18, 2020

जीवन

जब तक सासें चल रही है तभी  तक जीवन है ।  कौन जाने शरीर को त्यागकर अनंत अंतरिक्ष में गुम हुआ हमारा सांस फिर पृथ्वी पर किसी रूप में  लौटे कि न लौटे । प्रकृति प्रदत्त इस अनमोल जीवन का विचार कर उपयोग करना चाहिए । अहं भाव में लीन हम कष्ट झेलते हैं । और अहं से मुक्त होकर अपनें अंदर कल्याणकारी भाव पैदा करते हैं एवं  लोगों के बीच रहते हुए भी हम दिव्य हो जाते हैं ।
                                      Janardan Tripathi 

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